Shiv Aur Parvati Ka Vivaah | शिव और पार्वती का विवाह

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  Table 1 रचयिता ग्रंथ  पात्र प्रकाशक टीकाकार भाषा शैली काण्ड  गोस्वामी तुलसीदास जी  श्रीरामचरितमानस  श्रीराम लक्ष्मण सीता हनुमान, रावण इत्यादि गीता प्रेस गोरखपुर    श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार  संस्कृत, अवधी  सोरठा, चोपाई, दोहा और छंद  बालकाण्ड Shiv Aur Parvati Ka Vivaah | शिव और पार्वती का विवाह रति गवनी सुनि संकर बानी।  रति प्रणाम करके वहां से गईं, रति के जाने के बाद सब देवता दौड़ते हुए कैलाश पहूॅंचे, क्यों? कहीं बाबा दोबारा समाधि में न चले जाएं अब तो कामदेव भी नहीं रहे जो दोबारा बाबा को समाधि से बाहर लाएं। पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा । भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥ सब देवताओं ने शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गए। बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥ कृपा के समुद्र शिवजी बोले- हे देवताओं! कहिए, आप किसलिए आए हैं? ब्रह्माजी बोले कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी , प्रभु आप तो अंतर्यामी हैं सब जानते हैं। Image Source - Google | Image by -  Geeta Press दो०- सकल सुरन्ह क

Ramcharitmanas Ki Chaupai Bal Kand

 

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Table 1
रचयिता
ग्रंथ 
पात्र
प्रकाशक
टीकाकार
भाषा
शैली
काण्ड
 गोस्वामी तुलसीदास जी  श्रीरामचरितमानस  श्रीराम लक्ष्मण सीता हनुमान, रावण इत्यादि गीता प्रेस गोरखपुर   श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार  संस्कृत, अवधी  सोरठा, चोपाई, दोहा और छंद  बालकाण्ड



तुलसीदास जी महाराज कहते हैं तीर्थराज प्रयाग में एक ऋषि हैं, जिनका नाम है भरद्वाज
भरद्वाज जी प्रयाग में रहते हैं राम जी के चरणों के प्रति मन में, हृदय में अनुराग है, तपस्वी हैं, सम-दम से युक्त हैं।

सम यानी जिसका मन उसके वश में हो, हम जैसा चाहें हमारा मन वैसा सोचे, ये साधारण बात नहीं है, है क्या ठीक इसके विपरित मन हमारे वश में नहीं है, हम अपने मन के वश में हैं।
इसलिए मन जैसा चाहता है हमको नचाता रहता है परन्तु जो साधक गण हैं, जो तपस्वी लोग हैं वो मन के वश में नहीं रहते, वो मन को अपने वश में करके रहते हैं।
अर्थात वो जैसा चाहते हैं उनका मन वैसा करता है।
भरद्वाज जी ने मन को अपने वश में कर रखा है, सम से संपन्न हैं, युक्त हैं।

दम यानी, जिसकी इंद्रियां उसके वश में हो जाएं, (पांच ज्ञान इंद्रियां हैं, पांच कर्म इंद्रियां हैं, चार विशेष इंद्रियां हैं- १ मन, २ बुद्धि, ३ चित्त, ४ अहंकार)।
इंद्रियां जिसके वश में हो जाएं वो दम कहलाता है, भरद्वाज जी तपस्वी हैं, प्रयाग में रहते हैं और सम-दम से परिपूर्ण हैं, दया के भण्डार हैं, परमार्थ पथ पर चलने वाले पथिक हैं।

मकर संक्रांति से तीर्थराज प्रयाग में एक महीने का मेला लगता है, प्रत्येक वर्ष लगता है उसे माघि मेला कहते हैं (पहले भी लगता था आज भी लगता है)।
पूरे देश के ऋषि मुनि जाकर प्रयाग में एक महीना वास करते हैं, सत्संग करते हैं, स्नान करते हैं, भजन करते हैं, कई लोग कल्पवास भी करते हैं।

पूरे देश के ऋषि मुनि प्रयाग में आकर रहते हैं, एक माह वास करने के बाद सब लोग अपने-अपने आश्रम वापस जाने के लिए भरद्वाज मुनि से विदा लेने पहुंचे, और विदा लेकर जब जाने लगे तो उन ऋषियों के बीच में एक ऋषि हैं जिनका नाम है श्री याज्ञवल्क्य ऋषि परम ज्ञानी हैं, विवेकी हैं भरद्वाज जी ने जब याज्ञवल्क्य ऋषि को जाते हुए देखा तो उनके चरणों को पकड़कर निवेदन करने लगे।

भरद्वाज राखे पद टेकी, याज्ञवल्क्य जी के चरणों में दंडवत प्रणाम करके भरद्वाज जी ने उन्हें रोक लिया।
याज्ञवल्क्य मुनि को लेकर भरद्वाज जी अपने आश्रम में आयें उनको उचित आसन पर विराजमान किया, उनके चरण पखारे, पूजन किया।

याज्ञवल्क्य जी ने पूछा भरद्वाज जी आपने मुझे क्यों रोका? भरद्वाज जी कहने लगे ऋषिवर मेरे मन में एक संसय है, और मैं जानता हूॅं कि मेरे इस संसय को आपको छोड़कर दूसरा और कोई दूर करने वाला नहीं है।

याज्ञवल्क्य जी ने पूछा क्या संसय है? भरद्वाज जी हाथ जोड़कर पूछते हैं-

राम कवन प्रभु पूछउॅं तोही । कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही ।।


याज्ञवल्क्य भरद्वाज संवाद तथा प्रयाग माहात्म्य

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा । तिन्हहि राम पद अति अनुरागा ॥
तापस सम दम दया निधाना । परमारथ पथ परम सुजाना ॥
अर्थात
भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका श्रीरामजी के चरणों में अत्यन्त प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीतचित्त, जितेन्द्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर हैं ॥१॥

माघ मकरगत रबि जब होई । तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनीं । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं ॥
अर्थात
माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं ॥२॥

पूजहिं माधव पद जलजाता । परसि अखय बटु हरषहिं गाता ॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिबर मन भावन ॥
अर्थात
श्रीवेणीमाधवजी के चरण कमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं। भरद्वाज जी का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भाने वाला है॥३॥

तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा । जाहिं जे मज्जन तीरथराजा ॥
मज्जहिं प्रात समेत समेत उछाहा । कहहिं परसपर हरि गुन गाहा ॥
अर्थात
तीर्थराज प्रयाग में जो स्नान करने जाते हैं उन ऋषि-मुनियों का समाज वहाँ (भरद्वाज के आश्रम में) जुटता है। प्रातःकाल सब उत्साह पूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवान् के गुणों की कथाएँ कहते हैं ॥४॥

दो०-
ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग ।
कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग ॥४४॥
अर्थात
ब्रह्म का निरूपण, धर्म का विधान और तत्त्वों के विभाग का वर्णन करते हैं तथा ज्ञान-वैराग्य से युक्त भगवान् की भक्ति का कथन करते हैं ॥४४॥

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं । पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं ॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा । मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा ॥
अर्थात
इसी प्रकार माघ के महीने भर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते हैं। हर साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनन्द होता है। मकर में स्नान करके मुनिगण चले जाते हैं ॥१॥

एक बार भरि मकर नहाए । सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए ॥
जागबलिक मुनि परम बिबेकी । भरद्वाज राखे पद टेकी ॥
अर्थात
एक बार पूरे मकर भर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट गये। परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनि को चरण पकड़कर भरद्वाज जी ने रख लिया॥२॥

सादर चरन सरोज पखारे । अति पुनीत आसन बैठारे ॥
करि पूजा मुनि सुजसु बखानी । बोले अति पुनीत मृदु बानी ॥
अर्थात
आदरपूर्वक उनके चरण कमल धोये और बड़े ही पवित्र आसन पर उन्हें बैठाया। पूजा करके मुनि याज्ञवल्क्य जी के सुयश का वर्णन किया और फिर अत्यन्त पवित्र और कोमल वाणी से बोले- ॥३॥

नाथ एक संसउ बड़ मोरें । करगत बेदतत्त्व सबु तोरें ॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा । जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा ॥
अर्थात
हे नाथ! मेरे मन में एक बड़ा सन्देह है; वेदों का तत्त्व सब आपकी मुट्ठी में है (अर्थात् आप ही वेद का तत्त्व जानने वाले होने के कारण मेरा सन्देह निवारण कर सकते हैं) पर उस सन्देह को कहते मुझे भय और लाज आती है [भय इसलिये कि कहीं आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है, लाज इसलिये कि इतनी आयु बीत गयी, अब तक ज्ञान न हुआ] और यदि नहीं कहता तो बड़ी हानि होती है [क्योंकि अज्ञानी बना रहता हूँ] ॥४॥

दो०-
संत कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव ।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥४५॥
अर्थात
हे प्रभो! संत लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदयमें निर्मल ज्ञान नहीं होता ॥४५॥

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू । हरहु नाथ करि जन पर छोहू ॥
राम नाम कर अमित प्रभावा । संत पुरान उपनिषद गावा ॥
अर्थात
यही सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ। हे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का नाश कीजिये। संतों, पुराणों और उपनिषदों ने राम नाम के असीम प्रभाव का गान किया है ॥१॥

संतत जपत संभु अबिनासी । सिव भगवान ग्यान गुन रासी ॥
आकर चारि जीव जग अहहीं । कासीं मरत परम पद लहहीं ॥
अर्थात
कल्याण स्वरूप, ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान् शम्भु निरन्तर राम नाम का जप करते रहते हैं। संसार में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं ॥२॥

सोपि राम महिमा मुनिराया । सिव उपदेसु करत करि दाया ॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही । कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
अर्थात
हे मुनिराज! वह भी राम [नाम] की ही महिमा है, क्योंकि शिवजी महाराज दया करके [काशी में मरने वाले जीव को] राम नाम का ही उपदेश करते हैं [इसी से उनको परम पद मिलता है] । हे प्रभो! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं ? हे कृपानिधान ! मुझे समझाकर कहिये ॥३॥

एक राम अवधेस कुमारा । तिन्ह कर चरित बिदित संसारा ॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा । भयउ रोषु रन रावनु मारा ॥
अर्थात
एक राम तो अवध नरेश दशरथजी के कुमार हैं, उनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होंने स्त्री के विरह में अपार दुःख उठाया और क्रोध आने पर युद्ध में रावण को मार डाला ॥४॥

दो०-
प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि ।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि ॥४६॥
अर्थात
हे प्रभो ! वही राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको शिवजी जपते हैं ? आप सत्य के धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचार कर कहिये ॥४६॥

जैसे मिटै मोर भ्रम भारी । कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी ॥
जागबलिक बोले मुसुकाई । तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई ॥
अर्थात
हे नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाय, आप वही कथा विस्तार पूर्वक कहिये। इस पर याज्ञवल्क्य जी मुसकराकर बोले, श्रीरघुनाथजी की प्रभुता को तुम जानते हो ॥१॥

रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी । चतुराई तुम्हारि मैं जानी ॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा । कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा ॥
अर्थात
तुम मन, वचन और कर्म से श्रीरामजी के भक्त हो। तुम्हारी चतुराई को मैं जान गया। तुम श्रीरामजी के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते हो; इसी से तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो बड़े ही मूढ़ हो ॥२॥

तात सुनहु सादर मनु लाई । कहउँ राम कै कथा सुहाई ॥
महामोहु महिषेसु बिसाला । रामकथा कालिका कराला ॥
अर्थात
हे तात! तुम आदर पूर्वक मन लगाकर सुनो; मैं श्रीरामजी की सुन्दर कथा कहता हूँ। बड़ा भारी अज्ञान विशाल महिषासुर है और श्रीरामजी की कथा [उसे नष्ट कर देने वाली] भयंकर काली जी हैं ॥३॥

रामकथा ससि किरन समाना । संत चकोर करहिं जेहि पाना ॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी । महादेव तब कहा बखानी ॥
अर्थात
श्रीरामजी की कथा चन्द्रमा की किरणों के समान है, जिसे संत रूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही सन्देह पार्वती जी ने किया था, तब महादेव जी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था ॥४॥

दो०-
कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद ।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद ॥४७॥
अर्थात
अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वही उमा और शिवजी का संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस हेतु से हुआ, उसे हे मुनि ! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद मिट जायगा ॥४७॥

एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाहीं ॥
संग सती जगजननि भवानी । पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी ॥
अर्थात
एक बार त्रेतायुग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गये। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया ॥१॥

रामकथा मुनिबर्ज बखानी । सुनी महेस परम सुखु मानी ॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई । कही संभु अधिकारी पाई ॥
अर्थात
मुनिवर अगस्त्य जी ने राम कथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिवजी से सुन्दर हरि भक्ति पूछी और शिवजीने उनको अधिकारी पाकर [रहस्य सहित] भक्ति का निरूपण किया ॥२॥

कहत सुनत रघुपति गुन गाथा । कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा ॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी । चले भवन सँग दच्छकुमारी ॥
अर्थात
श्रीरघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर (कैलास) को चले ॥३॥

तेहि अवसर भंजन महिभारा । हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥
पिता बचन तजि राजु उदासी । दंडक बन बिचरत अबिनासी ॥
अर्थात
उन्हीं दिनों पृथ्वीका भार उतारनेके लिये श्रीहरिने रघुवंशमें अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान् उस समय पिताके वचनसे राज्यका त्याग करके तपस्वी या साधुवेशमें दण्डकवनमें विचर रहे थे ॥४॥

दो०-
हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ ॥४८ (क)॥
अर्थात
शिवजी हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान् के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्तरूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जायँगे ॥४८ (क)॥

सो०-
संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची ॥४८ (ख)॥
अर्थात
श्रीशङ्करजी के हृदय में इस बात को लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गयी, परन्तु सती जी इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदास जी कहते हैं कि शिवजी के मनमें [भेद खुलने का] डर था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे ॥४८ (ख)॥

रावन मरन मनुज कर जाचा । प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा ॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा । करत बिचारु न बनत बनावा ॥
अर्थात
रावण ने [ब्रह्माजी से] अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जायगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी॥१॥

एहि बिधि भए सोचबस ईसा । तेही समय जाइ दससीसा ॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा ॥
अर्थात
इस प्रकार महादेव जी चिन्ता के वश हो गये। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया और वह (मारीच) तुरंत कपट मृग बन गया ॥२॥

करि छलु मूढ़ हरी बैदेही । प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही ॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए । आश्रमु देखि नयन जल छाए ॥
अर्थात
मूर्ख (रावण) ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्रीरामचन्द्रजी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मार कर भाई लक्ष्मण सहित श्रीहरि आश्रम में आये और उसे खाली देखकर (अर्थात् वहाँ सीताजी को न पाकर) उनके नेत्रों में आँसू भर आये ॥३॥

बिरह बिकल नर इव रघुराई । खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई ॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें । देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें ॥
अर्थात
श्रीरघुनाथजी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया ॥४॥

दो०-
अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान ।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन ॥४९॥
अर्थात
श्रीरघुनाथजी का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानी जन ही जानते हैं। जो मन्दबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं ॥४९॥

संभु समय तेहि रामहि देखा । उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी । कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी ॥
अर्थात
श्रीशिवजी ने उसी अवसर पर श्रीरामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनन्द उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र (श्रीरामचन्द्रजी) को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया ॥१॥

जय सच्चिदानंद जग पावन । अस कहि चलेउ मनोज नसावन ॥
चले जात सिव सती समेता । पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ॥
अर्थात
जगत् के पवित्र करने वाले सच्चिदानन्द की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनन्द से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे ॥२॥

सती का भ्रम, श्रीरामजी का ऐश्वर्य और सती का खेद

सतीं सो दसा संभु कै देखी । उर उपजा संदेहु बिसेषी ॥
संकरु जगतबंध जगदीसा । सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥
अर्थात
सतीजी ने शङ्करजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा सन्देह उत्पन्न हो गया। [वे मन-ही-मन कहने लगी कि] शङ्करजी की सारा जगत् वन्दना करता है, वे जगत्के ईश्वर हैं; देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं॥३॥

तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा । कहि सच्चिदानंद परधामा ॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी । अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥
अर्थात
उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानन्द परमधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गये कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती ॥४॥

दो०-
ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद ।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद ॥५०॥
अर्थात
जो ब्रह्म सर्वव्यापक, माया रहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छा रहित और भेद रहित है, और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है? ॥५०॥

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी । सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी । श्रीपति ग्यानधाम असुरारी ॥
अर्थात
देवताओं के हित के लिये मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान् हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भण्डार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे? ॥१॥

संभुगिरा पुनि मृषा न होई । सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥
अस संसय मन भयउ अपारा । होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा ॥
अर्थात
फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार सन्देह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था ॥२॥

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी ॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ । संसय अस न धरिअ उर काऊ ॥
अर्थात
यद्यपि भवानी जी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गये। वे बोले हे सती ! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा सन्देह मन में कभी न रखना चाहिये ॥३॥

जासु कथा कुंभज रिषि गाई । भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा । सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥
अर्थात
जिनकी कथाका अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनायी, ये वही मेरे इष्टदेव श्रीरघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं ॥४॥

छं०-
मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥
अर्थात
ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरन्तर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतन्त्र ब्रह्मरूप भगवान् श्रीरामजी ने अपने भक्तों के हित के लिये [अपनी इच्छा से] रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है।

सो०-
लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिर्वं बार बहु ।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ ॥५१॥
अर्थात
यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेव जी मन में भगवान् की माया का बल जानकर मुसकराते हुए बोले- ॥५१॥

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू । तौ किन जाइ परीछा लेहू ॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं । जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं ॥
अर्थात
जो तुम्हारे मन में बहुत सन्देह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तबतक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ ॥१॥

जैसें जाइ मोह भ्रम भारी । करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी ॥
चली सती सिव आयसु पाई । करहिं बिचारु करौं का भाई ॥
अर्थात
जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञान जनित भारी भ्रम दूर हो, [भली भाँति] विवेक के द्वारा सोच समझकर तुम वही करना। शिवजी की आज्ञा पाकर सती चली और मन में सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)? ॥२॥

इहाँ संभु अस मन अनुमाना । दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना ॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं । बिधि बिपरीत भलाई नाहीं ॥
अर्थात
इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्ष कन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी सन्देह दूर नहीं होता तब [मालूम होता है] विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है ॥३॥

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा ॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा । गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा ॥
अर्थात
जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। [मन में] ऐसा कहकर शिवजी भगवान् श्रीहरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गयीं जहाँ सुख के धाम प्रभु श्रीरामचन्द्रजी थे ॥४॥

दो०-
पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप ।
आगे होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप ॥५२॥
अर्थात
सती बार-बार मन में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे [सतीजी के विचारानुसार] मनुष्यों के राजा रामचन्द्रजी आ रहे थे ॥५२॥

लछिमन दीख उमाकृत बेषा । चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा ॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा । प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा ॥
अर्थात
सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मण जी चकित हो गये और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गम्भीर हो गये, कुछ कह नहीं सके। धीरबुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को जानते थे ॥१॥

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी । सबदरसी सब अंतरजामी ॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना । सोइ सरबग्य रामु भगवाना ॥
अर्थात
सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी सती के कपट को जान गये; जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी हैं ॥२॥

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ । देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी । बोले बिहसि रामु मृदु बानी ॥
अर्थात
स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान् के सामने) भी सतीजी छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्रीरामचन्द्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले ॥३॥

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू । पिता समेत लीन्ह निज नामू ॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू । बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू ॥
अर्थात
पहले प्रभु ने हाथ जोड़कर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं ? आप यहाँ वन में अकेली किसलिये फिर रही हैं ? ॥४॥

दो०-
राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु ।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु ॥५३॥
अर्थात
रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बड़ी चिन्ता हो गयी- ॥५३॥

मैं संकर कर कहा न माना । निज अग्यानु राम पर आना ॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा । उर उपजा अति दारुन दाहा ॥
अर्थात
-कि मैंने शङ्करजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्रीरामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूंगी? [यों सोचते-सोचते] सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गयी ॥१॥

जाना राम सती दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा ॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता । आगें रामु सहित श्री भ्राता ॥
अर्थात
श्रीरामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ; तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्रीरामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मण जी सहित आगे चले जा रहे हैं। [इस अवसर पर सीताजी को इसलिये दिखाया कि सतीजी श्रीराम के सच्चिदानन्दमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी वह दूर हो जाय तथा वे प्रकृतिस्थ हों] ॥२॥

फिरि चितवा पाछे प्रभु देखा । सहित बंधु सिय सुंदर बेषा ॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना । सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना ॥
अर्थात
[तब उन्होंने] पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मण जी और सीताजी के साथ श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर वेष में दिखायी दिये। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्रीरामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं ॥३॥

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका । अमित प्रभाउ एक तें एका ॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा । बिबिध बेष देखे सब देवा ॥
अर्थात
सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक-से-एक बढ़कर असीम प्रभाव वाले थे। [उन्होंने देखा कि] भाँति-भाँति के वेष धारण किये सभी देवता श्रीरामचन्द्रजी की चरण वन्दना और सेवा कर रहे हैं ॥४॥

दो०-
सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप ।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप ॥५४॥
अर्थात
उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में [उनकी] ये सब [शक्तियाँ ] भी थीं ॥५४॥

देखे जहँ तहँ रघुपति जेते । सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते ॥
जीव चराचर जो संसारा । देखे सकल अनेक प्रकारा ॥
अर्थात
सतीजी ने जहाँ-तहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार से सब देखे ॥१॥

पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा । राम रूप दूसर नहिं देखा ॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे । सीता सहित न बेष घनेरे ॥
अर्थात
[उन्होंने देखा कि] अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं परन्तु श्रीरामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्रीरघुनाथजी बहुत-से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे ॥२॥

सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता । देखि सती अति भईं सभीता ॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं । नयन मूदि बैठी मग माहीं ॥
अर्थात
[सब जगह] वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी-सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गयीं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूंदकर मार्ग में बैठ गयीं ॥३॥

बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी । कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी ॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा । चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा ॥
अर्थात
फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दीख पड़ा। तब वे बार-बार श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं जहाँ श्रीशिवजी थे ॥४॥

दो०-
गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात ।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात ॥५५॥
अर्थात
जब पास पहुँची, तब श्रीशिवजी ने हँसकर कुशल-प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो ॥५५॥

मासपारायण, दूसरा विश्राम

शिवजी द्वारा सती का त्याग, शिवजी की समाधि

सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ । भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं । कीन्ह प्रनाम तुम्हारिहि नाईं ॥
अर्थात
सतीजी ने श्रीरघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन् ! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, [वहाँ जाकर] आपकी ही तरह प्रणाम किया ॥१॥

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई । मोरें मन प्रतीति अति सोई ॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना । सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना ॥
अर्थात
आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया ॥२॥

बहुरि राममायहि सिरु नावा । प्रेरि सतिहि जेहिं झूठ कहावा ॥
हरि इच्छा भावी बलवाना । हृदयँ बिचारत संभु सुजाना ॥
अर्थात
फिर श्रीरामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है ॥३॥

सती कीन्ह सीता कर बेषा । सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा ॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती । मिटइ भगति पथु होइ अनीती ॥
अर्थात
सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्ति मार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है ॥४॥

दो०-
परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु ।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु ॥५६॥
अर्थात
सती परम पवित्र हैं, इसलिये इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा सन्ताप है ॥५६॥

तब संकर प्रभु पद सिरु नावा । सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा ॥
एहिं तन सतिहि भेट मोहि नाहीं । सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं ॥
अर्थात
तब शिवजी ने प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्रीरामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी [पति-पत्नी रूप में] भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह सङ्कल्प कर लिया ॥१॥

अस बिचारि संकरु मतिधीरा । चले भवन सुमिरत रघुबीरा ॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई । जय महेस भलि भगति दृढ़ाई ॥
अर्थात
स्थिर बुद्धि शङ्करजी ऐसा विचार कर श्रीरघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुन्दर आकाशवाणी हुई कि हे महेश! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की ॥२॥

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना । रामभगत समरथ भगवाना ॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा । पूछा सिवहि समेत सकोचा ॥
अर्थात
आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है? आप श्रीरामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान् हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा- ॥३॥

कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला । सत्यधाम प्रभु दीनदयाला ॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती । तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती ॥
अर्थात
हे कृपालु ! कहिये, आपने कौन-सी प्रतिज्ञा की है ? हे प्रभो ! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा ॥४॥

दो०-
सती हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य ।
कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य ॥५७ (क)॥
अर्थात
सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गये। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती हैं ।।५७ (क)॥

सो०-
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि ।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि ॥५७ (ख)॥
अर्थात
प्रीति की सुन्दर रीति देखिये कि जल भी [दूध के साथ मिलकर] दूध के समान भाव बिकता है; परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद [प्रेम] जाता रहता है ॥५७ (ख)॥

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी । चिंता अमित जाइ नहिं बरनी ॥
कृपासिंधु सिव परम अगाधा । प्रगट न कहेउ मोर अपराधा ॥
अर्थात
अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। [उन्होंने समझ लिया कि] शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं, इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा ॥१॥

संकर रुख अवलोकि भवानी । प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी ॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई । तपइ अवाँ इव उर अधिकाई ॥
अर्थात
शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय [भीतर-ही-भीतर] कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा ॥२॥

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू । कहीं कथा सुंदर सुखहेतू ॥
बरनत पंथ बिबिध इतिहासा । बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा ॥
अर्थात
वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिये सुन्दर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे ॥३॥


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