तारकु असुर भयउ तेहि काला । भुज प्रताप बल तेज बिसाला ॥
तेहिं सब लोक लोकपति जीते । भए देव सुख संपति रीते ॥
अर्थात
उसी समय तारक नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बड़ा था। उसने सब लोक और लोकपालों को जीत लिया, सब देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गये ॥३॥
अजर अमर सो जीति न जाई । हारे सुर करि बिबिध लराई ॥
तब बिरंचि सन जाइ पुकारे । देखे बिधि सब देव दुखारे ॥
अर्थात
वह अजर-अमर था, इसलिये किसी से जीता नहीं जाता था। देवता उसके साथ बहुत तरह की लड़ाइयाँ लड़कर हार गये। तब उन्होंने ब्रह्माजी के पास जाकर पुकार मचायी। ब्रह्माजी ने सब देवताओं को दुःखी देखा ॥४॥
दो०-
सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ ।
संभु सुक्र संभूत सुत एहि जीतइ रन सोइ ॥८२॥
अर्थात
ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा-इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्ध में वही जीतेगा ॥८२॥
मोर कहा सुनि करहु उपाई । होइहि ईस्वर करिहि सहाई ॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा । जनमी जाइ हिमाचल गेहा ॥
अर्थात
मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेंगे और काम हो जायगा। सती जी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होंने अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है ॥१॥
तेहिं तपु कीन्ह संभु पति लागी । सिव समाधि बैठे सबु त्यागी ॥
जदपि अहइ असमंजस भारी । तदपि बात एक सुनहु हमारी ॥
अर्थात
उन्होंने शिवजी को पति बनाने के लिये तप किया है, इधर शिवजी सब छोड़-छाड़कर समाधि लगा बैठे हैं। यद्यपि है तो बड़े असमंजस की बात; तथापि मेरी एक बात सुनो ॥२॥
पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं । करै छोभु संकर मन माहीं ॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई । करवाउब बिबाहु बरिआई ॥
अर्थात
तुम जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो, वह शिवजी के मन में क्षोभ उत्पन्न करे ( उनकी समाधि भङ्ग करे )। तब हम जाकर शिवजी के चरणों में सिर रख देंगे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह करा देंगे ॥३॥
एहि बिधि भलेहिं देवहित होई । मत अति नीक कहइ सबु कोई ॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू । प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू ॥
अर्थात
इस प्रकार से भले ही देवताओं का हित हो [और तो कोई उपाय नहीं है] सबने कहा-यह सम्मति बहुत अच्छी है। फिर देवताओं ने बड़े प्रेम से स्तुति की, तब विषम (पाँच) बाण धारण करने वाला और मछली के चिह्न युक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुआ ॥४॥
कामदेव का देव कार्य के लिए जाना और भस्म होना
दो०-
सुरन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार ।
संभु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार ॥८३॥
अर्थात
देवताओं ने कामदेव से अपनी सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेव ने मन में विचार किया और हँसकर देवताओं से यों कहा कि शिवजी के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है ॥८३॥
तदपि करब मैं काजु तुम्हारा । श्रुति कह परम धरम उपकारा ॥
पर हित लागि तजइ जो देही । संतत संत प्रसंसहिं तेही ॥
अर्थात
तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योंकि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के लिये अपना शरीर त्याग देता है, संत सदा उसकी बड़ाई करते हैं ॥१॥
अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई । सुमन धनुष कर सहित सहाई ॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा । सिव बिरोध ध्रुव मरनु हमारा ॥
अर्थात
यों कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर [वसन्तादि] सहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय में ऐसा विचार किया कि शिवजी के साथ विरोध करनेसे मेरा मरण निश्चित है ॥२॥
तब आपन प्रभाउ बिस्तारा । निज बस कीन्ह सकल संसारा ॥
कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू । छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू ॥
अर्थात
तब उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली के चिह्न की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गयी ॥३॥
ब्रह्मचर्ज ब्रत संजम नाना । धीरज धरम ग्यान बिग्याना ॥
सदाचार जप जोग बिरागा । सभय बिबेक कटकु सबु भागा ॥
अर्थात
ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गयी ॥४॥
छं०-
भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट संजुग महि मुरे ।
सदग्रंथ पर्बत कंदरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे ॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा ।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा ॥
अर्थात
विवेक अपने सहायकों सहित भाग गया, उसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गये। उस समय वे सब सद्ग्रन्थरूपी पर्वत की कन्दराओं में जा छिपे (अर्थात् ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रन्थों में ही लिखे रह गये; उनका आचरण छूट गया)। सारे जगत् में खलबली मच गयी [और सब कहने लगे-] हे विधाता ! अब क्या होने वाला है, हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसा दो सिरवाला कौन है, जिसके लिये रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुषबाण उठाया है ?
दो०-
जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम ।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम ॥८४॥
अर्थात
जगत् में स्त्री-पुरुष संज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोड़कर काम के वश हो गये ॥८४॥
सब के हृदय मदन अभिलाषा । लता निहारि नवहिं तरु साखा ॥
नदी उमगि अंबुधि कहुँ धाईं । संगम करहिं तलाव तलाईं ॥
अर्थात
सबके हृदय में काम की इच्छा हो गयी। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड़-उमड़कर समुद्र की ओर दौड़ी और ताल-तलैयाँ भी आपस में संगम करने (मिलने-जुलने) लगीं ॥१॥
जहँ असि दसा जड़न्ह कै बरनी । को कहि सकइ सचेतन करनी ॥
पसु पच्छी नभ जल थल चारी । भए कामबस समय बिसारी ॥
अर्थात
जब जड (वृक्ष, नदी आदि) की यह दशा कही गयी, तब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरने वाले सारे पशु-पक्षी [अपने संयोग का] समय भुलाकर काम के वश हो गये ॥२॥
मदन अंध ब्याकुल सब लोका । निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका ॥
देव दनुज नर किंनर ब्याला । प्रेत पिसाच भूत बेताला ॥
अर्थात
सब लोग कामान्ध होकर व्याकुल हो गये। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल- ॥३॥
इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी । सदा काम के चेरे जानी ॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी । तेपि कामबस भए बियोगी ॥
अर्थात
ये तो सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैंने इनकी दशाका वर्णन नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान् योगी भी काम के वश होकर योग रहित या स्त्री के विरही हो गये ॥४॥
छं०-
भए कामबस जोगीस तापस पावरन्हि की को कहै ।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे ॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं ।
दुइ दंड भरि ब्रह्मांड भीतर कामकृत कौतुक अयं ॥
अर्थात
जब योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गये, तब पामर मनुष्यों की कौन कहे ? जो समस्त चराचर जगत् को ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे। स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ब्रह्माण्ड के अंदर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक (तमाशा) रहा ।
सो०-
धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे ।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ ॥८५॥
अर्थात
किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिये। श्रीरघुनाथजी ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे ॥८५॥
उभय घरी अस कौतुक भयऊ । जौ लगि कामु संभु पहिं गयऊ ॥
सिवहि बिलोकि ससंकेउ मारू । भयउ जथाथिति सबु संसारू ॥
अर्थात
दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा-का-तैसा स्थिर हो गया ॥१॥
भए तुरत सब जीव सुखारे । जिमि मद उतरि गएँ मतवारे ॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना । दुराधरष दुर्गम भगवाना ॥
अर्थात
तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गये जैसे मतवाले (नशा पिये हुए ) लोग मद (नशा) उतर जाने पर सुखी होते हैं। दुराधर्ष (जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन है) और दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन है) भगवान् (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्यरूप छ: ईश्वरीय गुणों से युक्त) रुद्र (महाभयङ्कर) शिवजी को देखकर कामदेव भयभीत हो गया ॥२॥
फिरत लाज कछु करि नहिं जाई । मरनु ठानि मन रचेसि उपाई ॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा । कुसुमित नव तरु राजि बिराजा ॥
अर्थात
लौट जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुन्दर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया। फूले हुए नये-नये वृक्षों की कतारें सुशोभित हो गयीं ॥३॥
बन उपबन बापिका तड़ागा । परम सुभग सब दिसा बिभागा ॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा । देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा ॥
अर्थात
वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुन्दर हो गये। जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उमड़ रहा है, जिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग उठा ॥४॥
छं०-
जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही ।
सीतल सुगंध सुमंद मारुत मदन अनल सखा सही ॥
बिकसे सरन्हि बहु कंज गुंजत पुंज मंजुल मधुकरा ।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा ॥
अर्थात
मरे हुए मन में भी कामदेव जागने लगा, वन की सुन्दरता कही नहीं जा सकती। काम रूपी अग्नि का सच्चा मित्र शीतल-मन्द-सुगन्धित पवन चलने लगा। सरोवरों में अनेकों कमल खिल गये, जिनपर सुन्दर भौंरों के समूह गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं ।
दो०-
सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत ।
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत ॥८६॥
अर्थात
कामदेव अपनी सेना समेत करोड़ों प्रकार की सब कलाएँ (उपाय) करके हार गया, पर शिवजी की अचल समाधि न डिगी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा ॥८६॥
देखि रसाल बिटप बर साखा । तेहि पर चढ़ेउ मदनु मन माखा ॥
सुमन चाप निज सर संधाने । अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने ॥
अर्थात
आम के वृक्ष की एक सुन्दर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उसपर चढ़ गया। उसने पुष्प-धनुष पर अपने [पाँचों] बाण चढ़ाये और अत्यन्त क्रोध से [लक्ष्य की ओर] ताककर उन्हें कान तक तान लिया ॥१॥
छाड़े बिषम बिसिख उर लागे । छूटि समाधि संभु तब जागे ॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी । नयन उघारि सकल दिसि देखी ॥
अर्थात
कामदेव ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोड़े, जो शिवजी के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि टूट गयी और वे जाग गये। ईश्वर (शिवजी) के मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होंने आँखें खोलकर सब ओर देखा ॥२॥
सौरभ पल्लव मदनु बिलोका । भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका ॥
तब सिवॅं तीसर नयन उघारा । चितवत कामु भयउ जरि छारा ॥
अर्थात
जब आम के पत्तों में [छिपे हुए] कामदेव को देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ, जिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला, उनके देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया ॥३॥
हाहाकार भयउ जग भारी । डरपे सुर भए असुर सुखारी ॥
समुझि कामसुखु सोचहिं भोगी । भए अकंटक साधक जोगी ॥
अर्थात
जगत् में बड़ा हाहाकार मच गया। देवता डर गये, दैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुख को याद करके चिन्ता करने लगे और साधक योगी निष्कंटक हो गये ॥४॥
छं०-
जोगी अकंटक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई ।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति संकर पहिं गई ॥
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही ।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही ॥
अर्थात
योगी निष्कंटक हो गये, कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही मूछित हो गयी। रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति से करुणा करती हुई वह शिवजी के पास गयी। अत्यन्त प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गयी। शीघ्र प्रसन्न होने वाले कृपालु शिवजी अबला (असहाया स्त्री) को देखकर सुन्दर (उसको सान्त्वना देने वाले) वचन बोले-
रति को वरदान
दो०-
अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनंगु ।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु ॥८७॥
अर्थात
हे रति ! अब से तेरे स्वामी का नाम अनङ्ग होगा। वह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगा। अब तू अपने पति से मिलने की बात सुन ॥८७॥
जब जदुबंस कृष्ण अवतारा । होइहि हरन महा महिभारा ॥
कृष्ण तनय होइहि पति तोरा । बचनु अन्यथा होइ न मोरा ॥
अर्थात
जब पृथ्वी के बड़े भारी भार को उतारने के लिये यदुवंश में श्रीकृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा। मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा ॥१॥
रति गवनी सुनि संकर बानी । कथा अपर अब कहउँ बखानी ॥
देवन्ह समाचार सब पाए । ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए ॥
अर्थात
शिवजी के वचन सुनकर रति चली गयी। अब दूसरी कथा बखानकर (विस्तार से) कहता हूँ।
ब्रह्मादि देवताओं ने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठ को चले ॥२॥
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