Shiv Aur Parvati Ka Vivaah | शिव और पार्वती का विवाह
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गोस्वामी तुलसीदास जी | श्रीरामचरितमानस | श्रीराम लक्ष्मण सीता हनुमान, रावण इत्यादि | गीता प्रेस गोरखपुर | श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार | संस्कृत, अवधी | सोरठा, चोपाई, दोहा और छंद | बालकाण्ड |
Shiv Aur Parvati Ka Vivaah | शिव और पार्वती का विवाह
रति गवनी सुनि संकर बानी।
रति प्रणाम करके वहां से गईं, रति के जाने के बाद सब देवता दौड़ते हुए कैलाश पहूॅंचे, क्यों? कहीं बाबा दोबारा समाधि में न चले जाएं अब तो कामदेव भी नहीं रहे जो दोबारा बाबा को समाधि से बाहर लाएं।
पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा । भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा॥
सब देवताओं ने शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गए।
बोले कृपासिंधु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
कृपा के समुद्र शिवजी बोले- हे देवताओं! कहिए, आप किसलिए आए हैं? ब्रह्माजी बोले कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी, प्रभु आप तो अंतर्यामी हैं सब जानते हैं।
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दो०-
सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥८८॥
ब्रह्मा जी ने कहा प्रभु सारे देवता लोग आपके विवाह का स्मरण करके आंनद में डूब रहे हैं, आपने तो रामजी को वचन भी दिया है! बाबा बोले हां, शंकर जी जानते हैं कि सब देवता तारकासुर के डर के मारे यहां आए हैं और यहां आकर उनको पढ़ा रहे हैं।
लेकिन जो जानने के बाद भी मौन होकर मुस्कुराता रहता है वही महादेव कहलाता है।
शंकर जी ब्रह्माजी से बोले चलिए ठीक है मैं विवाह के लिए तैयार हूॅं,
तब देवन्ह दुंदुभीं बजाईं । बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥
तब देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूलों की वर्षा करके 'जय हो! देवताओं के स्वामी जय हो' ऐसा कहने लगे, इसके बाद ब्रह्माजी ने सप्तर्षियों को पर्वतराज हिमांचल जी के यहां भेजा।
सप्तर्षि गए हिमांचल जी के पास और वहां से विवाह का मुहूर्त लेकर आए।
विवाह की तिथि, मुहूर्त निर्धारित हुआ सप्तर्षि मुहूर्त लेकर कैलाश पर ब्रह्माजी के पास पहुंचे और लग्न पत्रिका ब्रह्माजी को दिए, ब्रह्माजी ने पढ़कर सबको सुनाया।
उसे सुनकर सब मुनि और देवताओं का सारा समाज हर्षित हो गया। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मंगल कलश सजा दिए गए।
इसके बाद सभी देवता महादेव से विदा लेकर अपने-अपने धाम को लौटे।
दो०-
लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान॥९१॥
भगवान शंकर के विवाह का शुभ दिन आया, भगवान शंकर बड़े आनन्द में बैठे हैं लेकिन बाबा के गण बेचैन हो रहे हैं बाबा ने पूछा क्या हुआ गणों ने कहा बाबा अभी तक कोई देवता आपका श्रृंगार करने के लिए नहीं आया।
बाबा ने कहा अपना श्रृंगार करने से उन्हें फुर्सत मिलेगी तब तो आएंगे।
सभी देवता अपने-अपने लोक में अपने-अपने विमान और वाहन को सजाने में लगे हैं किसी को भी बाबा के श्रृंगार की चिंता नहीं ऐसा बाबा के गण कहने लगे।
बाबा ने कहा आप लोग मेरा श्रृंगार करो क्योंकि आप लोग मेरे साथ रहते हो, मेरे मन का भाव समझते हो, इसलिए आप लोगों से सुंदर मेरा श्रृंगार और कोई नहीं कर सकता।
भोलेनाथ के गंण प्रसन्न होकर भोलेनाथ का श्रृंगार करने में लग गए।
सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा । जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला । तन बिभूति पट केहरि छाला॥
ससि ललाट सुंदर सिर गंगा । नयन तीनि उपबीत भुजंगा॥
गरल कंठ उर नर सिर माला । असिव बेष सिवधाम कृपाला॥
भगवान शंकर बैठे और भोलेनाथ के गण भोलेनाथ का श्रृंगार प्रारंभ किए, सबसे पहले गणों ने बाबा की जटाओं को समेटना शुरू किया और ऐसा समेटा की जटाओं का ही मुकूट बना दिया।
मुकूट बनाने के बाद बाबा के गण उठ गये, बाबा ने पूछा क्या हुआ? गणों ने कहा प्रभु मुकूट तो तैयार हो गया लेकिन मौर रह गया, बिना मौर के आप दूलहा कैसे बनेंगे!
बाबा ने पूछा ये मौर क्या होता है? गण बोले कुछ नहीं प्रभु बस चेहरे के आगे लड़ियाॅं लटकती रहती हैं बस।
एक गण ने कहा रूकिए मैं कुछ सोचता हूॅं, उस गण ने पास में ही घूम रहे कुछ साॅंपों को पकड़ा सबको एकत्रित करके एक छोर पर बांधा और ले जाकर बाबा की जटाओं में पहना दिया, लिजिए प्रभु हो गया मौर तैयार।
शिवजी ने साँपों के ही कुंडल कान में पहने, साॅंपों के ही बाजू बॅंद, शिवजी के सुंदर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गंगाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला सजाई गई।
अब बस केवल वस्त्र की कमी रह गई, गणों ने बाबा से पूछा प्रभु आज कुछ पहनेंगे नहीं? बाबा ने कहा हम तो ऐसे ही रहते हैं, गणों ने कहा प्रभु दूसरे के नगर में जाना है, लोग हॅंसी उड़ावेंगे, भोलेनाथ बोले क्या पहनाओगे? गणों ने कहा प्रभु आप जिस बाघाम्बर पर बैठते हैं, आप कहें तो उसी को आपकी कमर में लपेट दें? बाबा बोले ठीक है।
अब गणों ने जैसे ही बाघाम्बर उठाकर बाबा की कमर में लपेटा, तो बाघाम्बर कड़ा था खुल कर नीचे गिर गया।
एक गण ने दिमाग लगाया और एक लम्बे साॅंप को पकड़ा और बाघाम्बर लपेट कर उसके ऊपर से उस साॅंप से कसकर बाघाम्बर को बाॅंध दिया और साॅंप को बोला ऐसे ही रहना हिलना-डुलना बिल्कुल भी मत, चाहे कुछ भी हो जाय, नहीं तो हॅंसी हो जाएगी।
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा । चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा॥
भोलेनाथ के एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में डमरू सुशोभित है, बाबा नंदी महाराज पर विराजमान हैं, बाबा का ये अद्भुत स्वरूप देखते ही बनता है सारे गण नाच रहे हैं।
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं । बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥
अब देवताओं की प्रतीक्षा होने लगी कि देवता आएं तो बारात प्रस्थान करे, इसी बीच देवता लोग भी आ गये अपनी-अपनी देवीयों के साथ, बाबा के इस अद्भुत श्रृंगार को देखकर देवांगनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य तो दुलहिन पूरे संसार में कहीं नहीं मिलेगी।
श्री विष्णु भगवान देवताओं के समाज को बुलाकर बोले देखो दूल्हे के अनुरूप उसकी बरात नहीं सजी है, नहिं बरात दूलह अनुरूपा, ये नहीं कहा कि बारात के अनुरूप दूलहा नहीं सजा है, दूलहे के अनुरूप बारात नहीं है।
इसलिए एक साथ यदि हम दूसरे के नगर में जाएंगे तो हॅंसी हो जाएगी क्योंकि दूल्हे और बारातियों का कोई मेल नहीं है इसलिए आप सब आगे-आगे निकल चलिए।
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने । निज निज सेन सहित बिलगाने।।
विष्णु जी की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और अपने-अपने समाज को लेकर आगे-आगे निकल पड़े।
श्री विष्णु जी की ये बात सुनकर बाबा मन में मुस्कुराए और बोले जय हो प्रभु आपने मेरे अन्य भक्तों के लिए भी सोच लिया और उनको भी इस बारात में सम्मिलित होने का अवसर दे दिया।
देवताओं को आगे आगे जाता देख भृंगी ने बाबा से कहा प्रभु बिना बाराती के दूल्हा जाएगा तो कैसा लगेगा? शंकर जी बोले देखो जो आंनद अपने समाज के साथ आता है न वो आंनद दूसरे के समाज में नहीं मिलता, इसलिए अपने समाज को बुलाओ।
भृंगी ने कहा प्रभु अपने वालों को तो हमने निमंत्रण ही नहीं भेजा है, शंकर जी बोले उनको निमंत्रण देकर कोई नहीं बुलाता वो तो बिना निमंत्रण के पहूॅंचे रहते हैं, भृंगी ने तुतूहीया निकाली और फूंकी।
सिव अनुसासन सुनि सब आए । प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
नाना बाहन नाना बेषा । बिहसे सिव समाज निज देखा॥
कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू । बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना । रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥
छं०-
तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥
तबतक चारों तरफ से हर हर महादेव की आवाज आने लगी कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है।
कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है। भयंकर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के जैसे उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं, इतने प्रकार के भूत-प्रेत हैं कि उनका वर्णन नहीं किया जा सकता।
सबने आकार भगवान् शंकर को प्रणाम किया, अब बाबा की बारात ने कैलाश से प्रस्थान किया किया सब भूत-प्रेत, निशाचर नाचने गाने लगे अब दूलहे के योग्य बारात भी हो गई।
सब मिलकर हर हर महादेव का जयकारा लगाने लगे देवता आगे चले गए हैं, एक देवता के कान में आवाज आयी हर हर महादेव, देवता सोचने लगे बाराती हम हैं और हम आगे आ गये हैं तो ये पीछे से हर हर महादेव का जयकारा कौन लगा रहा है।
जैसे ही एक देवता ने पीछे मुड़कर देखा दूसरे देवता ने पीछे क्या देख रहे हो? पहले वाले देवता ने कहा तुम भी देखो।
जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
सारे भूत-प्रेत नाचते-नाचते पहुॅंचे, हिमांचल जी के नगर के द्वार पर सबसे पहले देवता लोग पहुॅंचे, उधर से अगवानी करने वाले लोग नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात की अगुवानी करने के लिए आये।
देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किन्तु-
सिव समाज जब देखन लागे । बिडरि चले बाहन सब भागे॥
जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि) डरकर भाग खड़े हुए।
धरि धीरजु तहँ रहे सयाने । बालक सब लै जीव पराने॥
चुपचाप धीरज धारण करके अगुवान खड़े हैं, छोटे-छोटे बच्चे बारात देखने गए थे, भूत-प्रेत को देखा तो बच्चे घर की भाग लिए, घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, क्या हुआ? तब वे भय से काँपते हुए कहते हैं बारात नहीं आयी है, यमराज की सेना आयी है।
कहिअ काह कहि जाइ न बाता । जम कर धार किधौं बरिआता॥
माताओं ने पूछा दल्हा कैसा है? बच्चों ने कहा-
बरु बौराह बसहँ असवारा । ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥
दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं।
छं०-
तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥
बच्चे कहते हैं माॅं दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है। उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा।
अब भगवान शंकर द्वारपूजा के लिए पहुॅंचे, मैना मैया (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियाँ उत्तम मंगलगीत गाते हुए शंकर भगवान की आरती करने के लिए पहुॅंची।
मैना मैया ने भगवान शंकर का विकट वेष देखा तो मैना मैया के हाथ से आरती की थाली छूटकर नीचे गिर गई।
मैना मैया भीतर जाकर पार्वती जी को गोद में बिठाकर विलाप करने लगीं, मैं तुमको लेकर पर्वत से छलांग लगा दूंगी, जल में डूब मरुंगी, अग्नि में जल मरुंगी लेकिन अपने जीते जी इस बावले से विवाह कदापि नहीं होने दूंगी।
इतने में किसी ने पूछा ये दूल्हा बताया कौन था? मैना मैया ने नारदजी को बहुत कुछ सुनाया, मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिए तप किया।
पार्वती माता ने अपनी माॅं मैना से कहा माॅं मेरे भाग्य में जो लिखा है, मैं धरती पर जहाॅं जाऊॅंगी, मुझे वही प्राप्त होगा, आप व्यर्थ में किसी को दोष देकर कलंक की भागी मत बनिए।
इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्त ऋषियों को साथ लेकर अपने घर गए और नारदजी ने सबको पार्वती जी के पूर्व जन्म की कथा सबको सुनाई, महराज आपकी पुत्री पिछले जन्म में भी शिव की ही अर्धांगिनी थीं।
सती जी ने शिवजी की बात न मानकर अपने पिता के घर उनके यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए गईं, वहां उनका और शंकर जी का अपमान हुआ, परिणाम शरीर का त्याग करना पड़ा आपके पुन्य से पार्वती बनकर आपकी पुत्री बनीं हैं।
तब हिमांचल और मैना जी ने बारम्बार पार्वती के चरणों की वंदना की, इसके बाद विवाह मंडप में ब्राम्हणों के कहने के बाद भगवान शंकर सुन्दर पितांबर धारण करके दूल्हे के स्वरूप में उपस्थित हुए हैं, सखियाॅं माता पार्वती जी को लेकर आतीं हैं।
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मुनियों ने सबसे पहले गणपति भगवान का पूजन करवाया है।
दो०-
मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥१००॥
सबसे पहले गणपति भगवान का पूजन हुआ इसके बाद वेद भगवान ने विवाह की जो विधि बताई है, मुनियों ने पूरी विधि कराई, और पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हुआ।
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पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा । हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं । जय जय जय संकर सुर करहीं॥
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना । सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू । सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥
दासीं दास तुरग रथ नागा । धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना । दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥
विवाह सम्पन्न होने के बाद मुनि लोग वेद मंत्र का उच्चारण करने लगे, देवता जय जयकार करने लगे।
🚩 उमापति महादेव की जय 🚩
🚩 गौरीशंकर भगवान की जय 🚩
हिमांचल जी ने अनेक प्रकार से दाइज दिया है भगवान शंकर को, भोलेनाथ ने उनको भी संतुष्ट किया, द्वारपूजन के समय आरती न उतारने के कारण मैना जी ने भगवान शिव से क्षमा याचना की।
भगवान शंकर ने अनेक प्रकार से मैना मैया को भी समझाया।
बारात के विदा होने का समय हुआ तो मैना जी ने पार्वती जी गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी-
करेहु सदा संकर पद पूजा । नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
एक स्त्री के जीवन में उसके पति को छोड़कर दूसरा कोई भगवान नहीं होता, नारदजी कह रहे थे पिछले जन्म में आप सती थीं आपने अपने पति शिव के वचनों पर विश्वास नहीं किया परिणाम शरीर का त्याग करना पड़ा।
पुत्री जो अपराध पिछले जन्म में आपसे हुआ उस अपराध को इस जन्म में मत दोहराना, आप सदैव शंकर जी के चरणों की पूजा करना।
इसके बाद हिमांचल जी ने बारात को विदा किया, भगवान शंकर बारात को लेकर कैलाश पहुॅंचे सब देवता भगवान शंकर से विदा लेकर अपने-अपने धाम को गये।
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ । एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥
माता पार्वती और गणों के साथ भगवान शंकर कैलाश में विहार करते हैं अनेक काल बीत गए।
तब जनमेउ षटबदन कुमारा । तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥
अनेक काल बीतने के बाद छः मुखों वाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा।
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गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज लिखते हैं-
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना । षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥
वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है।
छं०-
जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥
यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥
षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है, इसलिए मैंने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्र का चरित्र संक्षेप में ही कहा है। शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।
शिव और पार्वती का विवाह
रति गवनी सुनि संकर बानी । कथा अपर अब कहउँ बखानी ॥
देवन्ह समाचार सब पाए । ब्रह्मादिक बैकुंठ सिधाए ॥
अर्थात
शिवजी के वचन सुनकर रति चली गयी। अब दूसरी कथा बखानकर (विस्तार से) कहता हूँ। ब्रह्मादि देवताओं ने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठ को चले ॥२॥
देवताओं का शिवजी से ब्याह के लिये प्रार्थना करना, सप्तर्षियों का पार्वती के पास जाना
सब सुर बिष्नु बिरंचि समेता । गए जहाँ सिव कृपानिकेता ॥
पृथक पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा । भए प्रसन्न चंद्र अवतंसा ॥
अर्थात
फिर वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गये जहाँ कृपा के धाम शिव जी थे। उन सबने शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब शशि भूषण शिवजी प्रसन्न हो गये ॥३॥
बोले कृपासिंधु वृषकेतू । कहहु अमर आए केहि हेतू ॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अंतरजामी । तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी ॥
अर्थात
कृपा के समुद्र शिवजी बोले-हे देवताओ ! कहिये, आप किसलिये आये हैं ? ब्रह्माजी ने कहा हे प्रभो ! आप अन्तर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी ! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ ॥४॥
दो०-
सकल सुरन्ह के हृदयँ अस संकर परम उछाहु ।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु ॥८८॥
अर्थात
हे शङ्कर ! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं ॥८८॥
यह उत्सव देखिअ भरि लोचन । सोइ कछु करहु मदन मद मोचन ॥
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा । कृपासिंधु यह अति भल कीन्हा ॥
अर्थात
हे कामदेव के मद को चूर करने वाले ! आप ऐसा कुछ कीजिये जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रति को जो वरदान दिया सो बहुत ही अच्छा किया ॥१॥
सासति करि पुनि करहिं पसाऊ । नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ ॥
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा । करहु तासु अब अंगीकारा ॥
अर्थात
हे नाथ ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं। पार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अङ्गीकार कीजिये ॥२॥
सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी । ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी ॥
तब देवन्ह दुंदुभी बजाईं । बरषि सुमन जय जय सुर साईं ॥
अर्थात
ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के वचनों को याद करके शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा-'ऐसा ही हो।' तब देवताओं ने नगाड़े बजाये और फूलों की वर्षा करके 'जय हो ! देवताओं के स्वामी की जय हो !' ऐसा कहने लगे ॥३॥
अवसरु जानि सप्तरिषि आए । तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए ॥
प्रथम गए जहँ रहीं भवानी । बोले मधुर बचन छल सानी ॥
अर्थात
उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आये और ब्रह्माजी ने तुरंत ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया। वे पहले वहाँ गये जहाँ पार्वती जी थीं और उनसे छल से भरे मीठे (विनोद युक्त, आनन्द पहुँचाने वाले) वचन बोले- ॥४॥
दो०-
कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस ।
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस ॥८९॥
अर्थात
नारदजी के उपदेश से तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योंकि महादेव जी ने काम को ही भस्म कर डाला ॥८९॥
मासपारायण, तीसरा विश्राम
सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी । उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी ॥
तुम्हरें जान कामु अब जारा । अब लगि संभु रहे सबिकारा ॥
अर्थात
यह सुनकर पार्वती जी मुसकराकर बोलीं-हे विज्ञानी मुनिवरो ! आपने उचित ही कहा। आपकी समझ में शिवजी ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकारयुक्त (कामी) ही रहे ! ॥१॥
हमरें जान सदा सिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगी ॥
जौं मैं सिव सेये अस जानी । प्रीति समेत कर्म मन बानी ॥
अर्थात
किन्तु हमारी समझ से तो शिवजी सदा से ही योगी, अजन्मा, अनिन्द्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैंने शिवजी को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है- ॥२॥
तौ हमार पन सुनहु मुनीसा । करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा ॥
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा । सोइ अति बड़ अबिबेकु तुम्हारा ॥
अर्थात
तो हे मुनीश्वरो ! सुनिये, वे कृपानिधान भगवान् मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करेंगे। आपने जो यह कहा कि शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया, यही आपका बड़ा भारी अविवेक है ॥३॥
तात अनल कर सहज सुभाऊ । हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ ॥
गएँ समीप सो अवसि नसाई । असि मन्मथ महेस की नाई ॥
अर्थात
हे तात ! अग्नि का तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जाने पर वह अवश्य नष्ट हो जायगा। महादेव जी और कामदेव के सम्बन्ध में भी यही न्याय (बात) समझना चाहिये ॥४॥
दो०-
हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास ।
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास ॥९०॥
अर्थात
पार्वती के वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदय में बड़े प्रसन्न हुए। वे भवानी को सिर नवाकर चल दिये और हिमाचल के पास पहुँचे ॥९०॥
सबु प्रसंगु गिरिपतिहि सुनावा । मदन दहन सुनि अति दुखु पावा ॥
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना । सुनि हिमवंत बहुत सुखु माना ॥
अर्थात
उन्होंने पर्वतराज हिमाचल को सब हाल सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुखी हुए। फिर मुनियों ने रति के वरदान की बात कही, उसे सुनकर हिमवान् ने बहुत सुख माना ॥१॥
हृदयँ बिचारि संभु प्रभुताई । सादर मुनिबर लिए बोलाई ॥
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई । बेगि बेदबिधि लगन धराई ॥
अर्थात
शिवजी के प्रभाव को मन में विचार कर हिमाचल ने श्रेष्ठ मुनियों को आदरपूर्वक बुला लिया और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घड़ी शोधवाकर वेद की विधि के अनुसार शीघ्र ही लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया ॥२॥
पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही । गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही ॥
जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती । बाचत प्रीति न हृदयँ समाती ॥
अर्थात
फिर हिमाचल ने वह लग्न पत्रिका सप्तर्षियों को दे दी और चरण पकड़कर उनकी विनती की। उन्होंने जाकर वह लग्न पत्रिका ब्रह्माजी को दी। उसको पढ़ते समय उनके हृदय में प्रेम समाता न था ॥३॥
लगन बाचि अज सबहि सुनाई । हरषे मुनि सब सुर समुदाई ॥
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे । मंगल कलस दसहुँ दिसि साजे ॥
अर्थात
ब्रह्माजी ने लग्न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और देवताओं का सारा समाज हर्षित हो गया। आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मङ्गलकलश सजा दिये गये ॥४॥
दो०-
लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान ।
होहिं सगुन मंगल सुभद करहिं अपछरा गान ॥९१॥
अर्थात
सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मङ्गल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं ॥९१॥
सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा । जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा ॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला । तन बिभूति पट केहरि छाला ॥
अर्थात
शिवजी के गण शिवजी का शृङ्गार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उसपर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुण्डल और कङ्कण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया ॥१॥
ससि ललाट सुंदर सिर गंगा। नयन तीनि उपबीत भुजंगा ॥
गरल कंठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला ॥
अर्थात
शिवजी के सुन्दर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गङ्गाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं ॥२॥
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा ॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं ॥
अर्थात
एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैलपर चढ़कर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवाङ्गनाएँ मुसकरा रही हैं [और कहती हैं कि] इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी ॥३॥
बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता । चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता ॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा । नहिं बरात दूलह अनुरूपा ॥
अर्थात
विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढ़कर बरात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुन्दर) था, पर दूल्हे के योग्य बरात न थी ॥४॥
दो०-
बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज ।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज ॥९२॥
अर्थात
तब विष्णु भगवान् ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा-सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो ॥९२॥
बर अनुहारि बरात न भाई । हँसी करैहहु पर पुर जाई ॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने । निज निज सेन सहित बिलगाने ॥
अर्थात
हे भाई ! हम लोगों की यह बरात वर के योग्य नहीं है। क्या पराये नगर में जाकर हँसी कराओगे ? विष्णु भगवान् की बात सुनकर देवता मुसकराये और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गये ॥१॥
मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं । हरि के बिंग्य बचन नहिं जाहीं ॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृंगिहि प्रेरि सकल गन टेरे ॥
अर्थात
महादेव जी [यह देखकर] मन-ही-मन मुसकराते हैं कि विष्णु भगवान् के व्यङ्ग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते। अपने प्यारे (विष्णु भगवान् ) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृङ्गी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया ॥२॥
शिवजी विचित्र बारात और विवाह की तैयारी
सिव अनुसासन सुनि सब आए । प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए ॥
नाना बाहन नाना बेषा । बिहसे सिव समाज निज देखा ॥
अर्थात
शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आये और उन्होंने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे ॥३॥
कोउ मुखहीन बिपुल मुख काहू । बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू ॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना । रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना ॥
अर्थात
कोई बिना मुखका है, किसी के बहुत-से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है ॥४॥
छं०-
तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें ।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें ।
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै ।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै ॥
अर्थात
कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किये हुए है। भयङ्कर गहने पहने हाथ में कपाल लिये हैं और सब-के-सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के-से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमातें हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।
सो०-
नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब ।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि ॥९३॥
अर्थात
भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बड़े मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढंगे जान पड़ते हैं और बड़े ही विचित्र ढंग से बोलते हैं ॥९३॥
जस दूलहु तसि बनी बराता । कौतुक बिबिध होहिं मग जाता ॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना । अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना ॥
अर्थात
जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बरात बन गयी है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता ॥१॥
सैल सकल जहँ लगि जग माहीं । लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं ॥
बन सागर सब नदीं तलावा । हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा ॥
अर्थात
जगत् में जितने छोटे-बड़े पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको नेवता भेजा ॥२॥
कामरूप सुंदर तन धारी । सहित समाज सहित बर नारी ॥
गए सकल तुहिनाचल गेहा । गावहिं मंगल सहित सनेहा ॥
अर्थात
वे सब अपने इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुन्दर शरीर धारण कर सुन्दरी स्त्रियों और समाजों के साथ हिमाचल के घर गये। सभी स्नेह सहित मङ्गल गीत गाते हैं ॥३॥
प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए ॥
पुर सोभा अवलोकि सुहाई । लागइ लघु बिरंचि निपुनाई ॥
अर्थात
हिमाचल ने पहले ही से बहुत-से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गये। नगर की सुन्दर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना-चातुरी भी तुच्छ लगती थी ॥४॥
छं०-
लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही ।
बन बाग कूप तड़ाग सरिता सुभग सब सक को कही ॥
मंगल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं ।
बनिता पुरुष सुंदर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं ॥
अर्थात
नगर की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है। वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुन्दर हैं; उनका वर्णन कौन कर सकता है ? घर-घर बहुत-से मङ्गल सूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं। वहाँ के सुन्दर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छबि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं।
दो०-
जगदंबा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ ।
रिद्धि सिद्धि संपत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ ॥९४॥
अर्थात
जिस नगर में स्वयं जगदम्बा ने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित-नये बढ़ते जाते हैं ॥९४॥
नगर निकट बरात सुनि आई । पुर खरभरु सोभा अधिकाई ॥
करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना ॥
अर्थात
बरात को नगर के निकट आयी सुनकर नगर में चहल-पहल मच गयी, जिससे उसकी शोभा बढ़ गयी। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृंगार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बरात को लेने चले ॥१॥
हियँ हरषे सुर सेन निहारी । हरिहि देखि अति भए सुखारी ॥
सिव समाज जब देखन लागे । बिडरि चले बाहन सब भागे ॥
अर्थात
देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान् को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए। किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोड़े, रथ के बैल आदि) डरकर भाग चले ॥२॥
धरि धीरजु तहँ रहे सयाने । बालक सब लै जीव पराने ॥
गएँ भवन पूछहिं पितु माता । कहहिं बचन भय कंपित गाता ॥
अर्थात
कुछ बड़ी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लड़के तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं- ॥३॥
कहिअ काह कहि जाइ न बाता । जम कर धार किधौं बरिआता ॥
बरु बौराह बसहँ असवारा । ब्याल कपाल बिभूषन छारा ॥
अर्थात
क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बरात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं ॥४॥
छं०–
तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयंकरा ।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा ॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड़ तेहि कर सही ।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही ॥
अर्थात
दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं; वह नङ्गा, जटाधारी और भयङ्कर है। उसके साथ भयानक मुख वाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं। जो बरात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लड़कों ने घर-घर यही बात कही।
दो०-
समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं ।
बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं ॥९५॥
महेश्वर (शिवजी) का समाज समझकर सब लड़कों के माता-पिता मुसकराते हैं। उन्होंने बहुत तरह से लड़कों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है ॥९५॥
लै अगवान बरातहि आए । दिए सबहि जनवास सुहाए ॥
मैनाँ सुभ आरती सँवारी । संग सुमंगल गावहिं नारी ॥
अर्थात
अगवान लोग बरात को लिवा लाये, उन्होंने सबको सुन्दर जनवासे ठहरने को दिये। मैना (पार्वती जी की माता) ने शुभ आरती सजायी और उनके साथकी स्त्रियाँ उत्तम मङ्गल गीत गाने लगीं ॥१॥
कंचन थार सोह बर पानी । परिछन चली हरहि हरषानी ॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा । अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा ॥
अर्थात
सुन्दर हाथों में सोने का थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। जब महादेव जी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बड़ा भारी भय उत्पन्न हो गया ॥२॥
भागि भवन पैठीं अति त्रासा । गए महेसु जहाँ जनवासा ॥
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी । लीन्ही बोलि गिरीसकुमारी ॥
अर्थात
बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गयीं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गये। मैना के हृदय में बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने पार्वती जी को अपने पास बुला लिया ॥३॥
अधिक सनेहँ गोद बैठारी । स्याम सरोज नयन भरे बारी ॥
जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा । तेहिं जड़ बरु बाउर कस कीन्हा ॥
अर्थात
और अत्यन्त स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नील कमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा- जिस विधाता ने तुमको ऐसा सुन्दर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया? ॥४॥
छं०–
कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई ।
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई ॥
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं ।
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं ॥
अर्थात
जिस विधाता ने तुमको सुन्दरता दी, उसने तुम्हारे लिये वर बावला कैसे बनाया? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिये, वह जबर्दस्ती बबूल में लग रहा है। मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर पड़ूॅंगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद पड़ूॅंगी। चाहे घर उजड़ जाय और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाय, पर जीते-जी मैं इस बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी ।
दो०-
भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि ।
करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि ॥९६॥
अर्थात
हिमाचल की स्त्री (मैना) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गयीं। मैना अपनी कन्या के स्नेह को याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं- ॥९६॥
नारद कर मैं काह बिगारा । भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा ॥
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा । बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा ॥
अर्थात
मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा बसता हुआ घर उजाड़ दिया और जिन्होंने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिये तप किया ॥१॥
साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया । उदासीन धनु धामु न जाया ॥
पर घर घालक लाज न भीरा । बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा ॥
अर्थात
सचमुच उनके न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है; वे सबसे उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे का घर उजाड़ने वाले हैं। उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीड़ा को क्या जाने ॥२॥
जननिहि बिकल बिलोकि भवानी । बोली जुत बिबेक मृदु बानी ॥
अस बिचारि सोचहि मति माता । सो न टरइ जो रचइ बिधाता ॥
अर्थात
माता को विकल देखकर पार्वती जी विवेक युक्त कोमल वाणी बोलीं-हे माता ! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं; ऐसा विचार कर तुम सोच मत करो ! ॥३॥
करम लिखा जौं बाउर नाहू । तौ कत दोसु लगाइअ काहू ॥
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अंका । मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलंका ॥
अर्थात
जो मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है तो किसी को क्यों दोष लगाया जाय? हे माता! क्या विधाता के अङ्क तुमसे मिट सकते हैं? वृथा कलङ्क का टीका मत लो ॥४॥
छं०-
जनि लेहु मातु कलंकु करुना परिहरहु अवसर नहीं ।
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं ॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं ।
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं ॥
अर्थात
हे माता ! कलङ्क मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है। मेरे भाग्य में जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी ! पार्वती जी के ऐसे विनय भरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं ।
दो०-
तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत ।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत ॥९७॥
अर्थात
इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारद जी और सप्तर्षियों को साथ लेकर अपने घर गये ॥९७॥
तब नारद सबही समुझावा । पूरुब कथाप्रसंगु सुनावा ॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी । जगदंबा तव सुता भवानी ॥
अर्थात
तब नारद जी ने पूर्व जन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया [और कहा] कि हे मैना ! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लड़की साक्षात् जगजननी भवानी है ॥१॥
अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि । सदा संभु अरधंग निवासिनि ॥
जग संभव पालन लय कारिनि । निज इच्छा लीला बपु धारिनि ॥
अर्थात
ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं। सदा शिवजी के अर्द्धाङ्ग में रहती हैं। ये जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली हैं; और अपनी इच्छा से ही लीला-शरीर धारण करती हैं ॥२॥
जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई । नामु सती सुंदर तनु पाई ॥
तहँहुँ सती संकरहि बिबाहीं । कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं ॥
अर्थात
पहले ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुन्दर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शङ्कर जी से ही ब्याही गयी थीं। यह कथा सारे जगत् में प्रसिद्ध है ॥३॥
एक बार आवत सिव संगा । देखेउ रघुकुल कमल पतंगा ॥
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा । भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा ॥
अर्थात
एक बार इन्होंने शिवजी के साथ आते हुए [राह में] रघुकुल रूपी कमल के सूर्य श्रीरामचन्द्रजी को देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होंने शिवजी का कहना न मानकर भ्रमवश सीता जी का वेष धारण कर लिया ॥४॥
छं०-
सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध संकर परिहरीं ।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु के जग्य जोगानल जरी ॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया ।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा संकरप्रिया ॥
अर्थात
सती जी ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शङ्कर जी ने उनको त्याग दिया। फिर शिवजी के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गयीं। अब इन्होंने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिये कठिन तप किया है ऐसा जानकर सन्देह छोड़ दो, पार्वती जी तो सदा ही शिवजी की प्रिया (अर्द्धाङ्गिनी) हैं ।
दो०-
सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद ।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह संबाद ॥९८॥
अर्थात
तब नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षण भर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया ॥९८॥
तब मयना हिमवंतु अनंदे । पुनि पुनि पारबती पद बंदे ॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने । नगर लोग सब अति हरषाने ॥
अर्थात
तब मैना और हिमवान् आनन्द में मग्न हो गये और उन्होंने बार-बार पार्वती के चरणों की वन्दना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए ॥१॥
लगे होन पुर मंगल गाना । सजे सबहिं हाटक घट नाना ॥
भाँति अनेक भई जेवनारा । सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा ॥
अर्थात
नगर में मङ्गलगीत गाये जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्ण के कलश सजाये। पाकशास्त्र में जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई (रसोई बनी) ॥२॥
सो जेवनार कि जाइ बखानी । बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी ॥
सादर बोले सकल बराती । बिष्नु बिरंचि देव सब जाती ॥
अर्थात
जिस घर में स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँ की ज्योनार (भोजन सामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है? हिमाचल ने आदर पूर्वक सब बरातियों को-विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को बुलवाया ॥३॥
बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा । लागे परुसन निपुन सुआरा ॥
नारिबंद सुर जेवँत जानी । लगीं देन गारी मृदु बानी ॥
अर्थात
भोजन [करने वालों] की बहुत-सी पङ्गतें बैठीं। चतुर रसोइये परोसने लगे। स्त्रियों की मण्डलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ देने लगीं ॥४॥
छं०-
गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं ।
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं ॥
जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो ।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो ॥
अर्थात
सब सुन्दरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ देने लगी और व्यंग्य भरे वचन सुनाने लगीं। देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिये भोजन करने में बड़ी देर लगा रहे हैं। भोजन के समय जो आनन्द बढ़ा, वह करोड़ों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता। [भोजन कर चुकने पर] सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिये गये। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गये ।
दो०-
बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ ॥९९॥
अर्थात
फिर मुनियों ने लौट कर हिमवान् को लगन (लग्नपत्रिका) सुनायी और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा ॥९९॥
बोलि सकल सुर सादर लीन्हे । सबहि जथोचित आसन दीन्हे ॥
बेदी बेद बिधान सँवारी । सुभग सुमंगल गावहिं नारी ॥
अर्थात
सब देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिये। वेद की रीति से वेदी सजायी गयी और स्त्रियाँ सुन्दर श्रेष्ठ मङ्गलगीत गाने लगीं ॥१॥
सिंघासनु अति दिब्य सुहावा । जाइ न बरनि बिरंचि बनावा ॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई । हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई ॥
अर्थात
वेदिका पर एक अत्यन्त सुन्दर दिव्य सिंहासन था, जिस [की सुन्दरता] का वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह स्वयं ब्रह्माजी का बनाया हुआ था। ब्राह्मणों को सिर नवाकर और हृदय में अपने स्वामी श्रीरघुनाथजी का स्मरण करके शिवजी उस सिंहासन पर बैठ गये ॥२॥
बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं । करि सिंगारु सखीं लै आईं ॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे । बरनै छबि अस जग कबि को है ॥
अर्थात
फिर मुनीश्वरों ने पार्वती जी को बुलाया। सखियाँ शृङ्गार करके उन्हें ले आयीं। पार्वती जी के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गये। संसार में ऐसा कवि कौन है जो उस सुन्दरता का वर्णन कर सके ! ॥३॥
जगदंबिका जानि भव भामा । सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा ॥
सुंदरता मरजाद भवानी । जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी ॥
अर्थात
पार्वती जी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन-ही-मन प्रणाम किया। भवानी जी सुन्दरता की सीमा हैं। करोड़ों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती ॥४॥
छं०-
कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा ।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मंदमति तुलसी कहा ॥
छबिखानि मातुभवानि गवनीं मध्य मंडप सिव जहाँ ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ ॥
अर्थात
जगज्जननी पार्वती जी की महान् शोभा का वर्णन करोड़ों मुखों से भी करते नहीं बनता। वेद, शेषजी और सरस्वती जी तक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं, तब मन्दबुद्धि तुलसी किस गिनती में है। सुन्दरता और शोभा की खान माता भवानी मण्डप के बीच में, जहाँ शिवजी थे, वहाँ गयीं। वे संकोच के मारे पति (शिवजी) के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मन रूपी भौंरा तो वहीं [रस-पान कर रहा] था ।
शिवजी का विवाह
दो०-
मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभु भवानि ।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि ॥१००॥
अर्थात
मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वती जी ने गणेशजी का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शङ्का न करे [कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की सन्तान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गये] ॥१००॥
जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई । महामुनिन्ह सो सब करवाई ॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी । भवहि समरपीं जानि भवानी ॥
अर्थात
वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गयी है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवायी। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिवजी को समर्पण किया ॥१॥
पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा । हियँ हरषे तब सकल सुरेसा ॥
बेदमंत्र मुनिबर उच्चरहीं । जय जय जय संकर सुर करहीं ॥
अर्थात
जब महेश्वर (शिवजी) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब [इन्द्रादि] सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जय-जयकार करने लगे ॥२॥
बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना ॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू । सकल भुवन भरि रहा उछाहू ॥
अर्थात
अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्रह्माण्ड में आनन्द भर गया ॥३॥
दासीं दास तुरग रथ नागा । धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा ॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना । दाइज दीन्ह न जाइ बखाना ॥
अर्थात
दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाड़ियों में लदवाकर दहेज में दिये, जिनका वर्णन नहीं हो सकता ॥४॥
छं०-
दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो ।
का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो ॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो ।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो ॥
अर्थात
बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा-हे शङ्कर ! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? [इतना कहकर] वे शिवजी के चरणकमल पकड़ कर रह गये। तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैनाजी ने शिवजी के चरणकमल पकड़े [और कहा-] ।
दो०-
नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु ।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु ॥१०१॥
अर्थात
हे नाथ ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान [प्यारी] है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइयेगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहियेगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिये ॥१०१॥
बहु बिधि संभु सासु समुझाई । गवनी भवन चरन सिरु नाई ॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही । लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही ॥
अर्थात
शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गयीं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बैठाकर यह सुन्दर सीख दी- ॥१॥
करेहु सदा संकर पद पूजा । नारिधरमु पति देउ न दूजा ॥
बचन कहत भरे लोचन बारी । बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी ॥
अर्थात
हे पार्वती ! तू सदा शिवजी के चरण की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिये पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आये और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया ॥२॥
कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं । पराधीन सपनेहुँ सुखु नाहीं ॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी ॥
अर्थात
[फिर बोलीं कि] विधाता ने जगत् में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यन्त विकल हो गयी, परन्तु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होंने धीरज धरा ॥३॥
पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना । परम प्रेम कछु जाइ न बरना ॥
सब नारिन्ह मिलि भेटि भवानी । जाइ जननि उर पुनि लपटानी ॥
अर्थात
मैना बार-बार मिलती हैं और [पार्वती के] चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं ॥४॥
छं०-
जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं ।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखी लै सिव पहिं गईं ॥
जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले ।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले ॥
अर्थात
पार्वती जी माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिये। पार्वती जी फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गयीं। महादेव जी सब याचकों को सन्तुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुन्दर नगाड़े बजने लगे।
दो०-
चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु ।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु ॥१०२॥
अर्थात
तब हिमवान् अत्यन्त प्रेम से शिवजी को पहुँचाने के लिये साथ चले। वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत ने तरह से उन्हें सन्तोष कराकर विदा किया ॥१०२॥
तुरत भवन आए गिरिराई । सकल सैल सर लिए बोलाई ॥
आदर दान बिनय बहुमाना । सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना ॥
अर्थात
पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आये और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान् ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मान पूर्वक सबकी विदाई की ॥१॥
जबहिं संभु कैलासहिं आए । सुर सब निज निज लोक सिधाए ॥
जगत मातु पितु संभु भवानी । तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी ॥
अर्थात
जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुंचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गये। [तुलसीदास जी कहते हैं कि] पार्वती जी और शिवजी जगत् के माता-पिता हैं, इसलिये मैं उनके शृङ्गार का वर्णन नहीं करता ॥२॥
करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा ॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ । एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ ॥
अर्थात
शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नये विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया ॥३॥
तब जनमेउ षटबदन कुमारा । तारकु असुरु समर जेहिं मारा ॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना । षन्मुख जन्मु सकल जग जाना ॥
अर्थात
तब छः मुख वाले पुत्र (स्वामि कार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने [बड़े होने पर] युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामि कार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत् उसे जानता है ॥४॥
छं०-
जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा ।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा ॥
यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं ।
कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं ॥
अर्थात
षडानन (स्वामि कार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान् पुरुषार्थ को सारा जगत् जानता है। इसलिये मैंने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्र का चरित्र संक्षेप से ही कहा है। शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गायेंगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मङ्गलों में सदा सुख पावेंगे ।
दो०-
चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु ।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु ॥१०३॥
अर्थात
गिरिजापति महादेव जी का चरित्र समुद्र के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यन्त मन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है ! ॥१०३॥
🚩 हर हर महादेव 🚩
🚩 उमापति महादेव की जय 🚩
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