Ramayan Chaupai Hindi Me
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गोस्वामी तुलसीदास जी | श्रीरामचरितमानस | श्रीराम लक्ष्मण सीता हनुमान, रावण इत्यादि | गीता प्रेस गोरखपुर | श्री हनुमानप्रसाद पोद्दार | संस्कृत, अवधी | सोरठा, चोपाई, दोहा और छंद | बालकाण्ड |
Ramayan Ki Chaupai Hindi Me | रामायण की चौपाई हिंदी में | Ramayan Chaupai Hindi Mein | Ramayan Chaupai Hindi Me
Ramayan Chaupai Hindi Me
किसी भी ग्रंथ को पढ़ने से पहले उसके बारे में जानना अति आवश्यक है क्योंकि जब तक आप जानेंगे नहीं आपका उसके प्रति विश्वास और श्रद्धा उत्पन्न नहीं होगी।
और एक बार विश्वास जम जाए तो आपको उसे पढ़ने में और समझने में आंनद की अनुभूति होगी।
मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज उत्तरकाण्ड में लिखते हैं-
जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ॥
(परतीत कहते हैं विश्वास को) गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं बिना जाने विश्वास होने वाला नहीं है और जब तक प्रेम और विश्वास उत्पन्न नहीं होगा तब तक आपको किसी भी ग्रंथ को पढ़ने में आंनद आने वाला नहीं है।
जिस पर आपको विश्वास नहीं होगा आप उसे कदापि समझ नहीं सकते क्योंकि जहां अविश्वास रहता है वहां केवल संशय उत्पन्न होता है वहां विश्वास टिकने वाला नहीं है।
विश्वास और प्रेम प्रगाढ़ हो इसके लिए जानना अति आवश्यक है।
रामचरित पहले किसने लिखा और गाया? इसका क्रम आगे कैसे-कैसे बढ़ा पहले हम इसकी बात करेंगे।
बालकाण्ड में गोस्वामी जी लिखते है इस राम कथा को सबसे पहले..
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा । बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा ॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा । राम भगत अधिकारी चीन्हा ॥
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा । तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा ॥
ते श्रोता बकता समसीला । सवँदरसी जानहिं हरिलीला ॥
किसी भी ग्रंथ की प्रमाणिकता तभी स्थापित होती है जब उसके उद्गम का पता चलता है, मानस का प्रारंभ कहां हुआ?
रचि महेश निज मानस राखा । पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा ॥
इसकी रचना देवाधिदेव महादेव ने की और उन्होंने इस कथा को किसी कागज के टुकड़े पर नहीं लिखा (रचि महेश निज मानस राखा) अपने मन (मस्तिष्क) में लिख कर रखा।
भगवान शंकर ने कथा लिखी और अपने मन में रखा कहां सुनाया और किसे सुनाया (पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा) गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं सुन्दर समय प्राप्त होने पर भोलेनाथ ने उस कथा को जगजननी भवानी मां पार्वती जी को सुनाया।
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यहीं से इस कथा का क्रम प्रारंभ भया (सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा।।) भगवान शिव ने इस कथा को माता पार्वती जी को सुनाने के बाद कागभुसुंडि जी को दिया।
कागभुसुंडि जी कौन थे
कागभुसुंडि जी का प्रथम जन्म अयोध्या में एक शुद्र के घर पर हुआ था, और वो शिव भक्त थे परन्तु अन्य देवताओं की निन्दा करते रहते थे एक समय अयोध्या में अकाल पड़ा और फिर वो अयोध्या को छोड़कर उज्जैन चले गए और एक ब्राह्मण के घर पर रहने लगे।
ब्राम्हण देवता भी शिव भक्त थे परन्तु वो विष्णु भगवान की निन्दा न तो करते थे और न ही सुनते थे।
कागभुसुंडि जी की सेवा से प्रसन्न होकर ब्राम्हण ने ने उन्हें एक शिव मंत्र दिया मंत्र पाकर कागभुसुंडि जी का अभिमान और बढ़ गया।
एक बार कागभुसुंडि जी ने अपने गुरु (ब्राम्हण देवता) का अपमान कर दिया जिससे महादेव ने कुपित होकर उन्हें शाप दे दिया कि तू सर्प योनि में चला जा, और तुझे 1000 बार अनेक योनियों में भटकना पड़ेगा।
ब्राम्हण देवता ने कागभुसुंडि जी के लिए महादेव से क्षमा याचना की फिर महादेव ने अपना शाप वापिस न लेते हुए कागभुसुंडि जी को एक वरदान दिया की किसी भी जन्म में इनका ज्ञान मिटेगा नहीं,
और साथ ही साथ महादेव ने कागभुसुंडि जी को भगवान श्री राम की भक्ति भी प्रदान की।
अन्त में उन्होंने एक ब्राम्हण के घर पर जन्म लिया और ज्ञान प्राप्ति के लिए लोमश ऋषि के पास गए उन्होंने लोमश ऋषि से कहा गुरुदेव मुझे राम जी के बारे में बताइए।
लोमश ऋषि जब रोज उन्हें राम जी की कथा सुनाते तो वो बीच-बीच में कुतर्क करते,
जिससे क्रोधित होकर लोमश ऋषि ने कागभुसुंडि जी को शाप दे दिया कि तू बीच-बीच में कौवे की तरह कांव-कांव करता है जा तू चाण्डाल पक्षी (कौवा) हो जा।
लेकिन कौवा बनकर भी उन्हें कष्ट नहीं हुआ, लोमश ऋषि को बाद में पश्चाताप हुआ और उन्होंने कागभुसुंडि जी को वापस बुलाकर उन्हें राम जी की भक्ति और इच्छा मृत्यु का वरदान दिया।
कागभुसुंडि जी कौवे का स्वरूप पाकर भी मन ही मन रघुनाथ जी का धन्यवाद करते, कि प्रभु आपकी मुझ पर बड़ी कृपा हुई पहले मनुष्य था तो पैदल चलना पड़ता था अब आपने मुझे कौवा बनाकर पंख दे दिया अब मैं बिना रोक-टोक कहीं भी आ जा सकता हूं।
इस प्रकार कागभुसुंडि जी को कौवे का स्वरूप प्राप्त हुआ और वो उसी स्वरूप में रहने लगे।
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। इसके बाद भगवान शंकर ने जाग्यबलिक मुनि को कथा सुनाई।
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अब यहां से कथा ऋषि परंपरा में प्रारंभ कर रही है, जाग्यबलिक ऋषि ने इस कथा को भारद्वाज ऋषि को सुनाई (तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा) अब इसके बाद गुरु शिष्य परंपरा प्रारंभ हुई।
भारद्वाज ऋषि ने अपने शिष्य को कथा सुनाई, उन्होंने अपने शिष्यों को कथा सुनाई इस प्रकार कथा का प्रसार हुआ और इसी क्रम में होते-होते कथा गोस्वामी तुलसीदास जी के पास पहुंची।
मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत ।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत ॥
गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं इसी प्रकार परंपरा प्रारंभ हुई और गुरु शिष्य परंपरा से ये कथा मुझे मेरे गुरुदेव पुज्यपाद नरहरिया दास जी महराज ने सुनाई, कहां सुनाई सूकर क्षेत्र में।
गोस्वामी जी कहते हैं कि जब मेरे गुरुदेव महराज ने मुझे कथा सुनाई तब मैं बालपन में था, गुरुदेव कथा तो सुनाते थे लेकिन मुझे कुछ समझ में नहीं आता था।
तदपि कही गुर बारहिं बारा । समुझि परी कछु मति अनुसारा ॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई । मोरें मन प्रबोध जेहिं होई ॥
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें । तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें ॥
गुरुदेव महराज मुझे बार-बार कथा सुनाते रहे और बार-बार सुनने के बाद (समुझि परी कछु मति अनुसारा) जैसी मेरी बुद्धि है, गुरूदेव महराज के कहने के अनुसार मुझे जो थोड़ी सी कथा समझ में आयी, वो कथा मैं लिखने जा रहा हूं।
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रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने सात काण्ड लिखा
1. बालकाण्ड
2. अयोध्याकाण्ड
3. अरण्यकाण्ड
4. किष्किन्धाकाण्ड
5. सुन्दरकाण्ड
6. लंकाकाण्ड
7. उत्तरकाण्ड
श्रीरामचरितमानस
प्रथम सोपान
बालकाण्ड
श्लोक
बालकाण्ड के प्रारंभ में गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने सात श्लोक लिखे।
१.
वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि ।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ।।१।।
अर्थात
अक्षरों, अर्थसमूहों, रसों, छन्दों और मंगलों को करने वाली माता सरस्वती और भगवान श्री गणेश जी की मैं वन्दना करता हूं ।।१।।
२.
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ।।२।।
अर्थात
श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वती जी और श्री शंकर जी की मैं वन्दना करता हूं, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्त:करण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते ।।२।।
३.
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम् ।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते ।।३।।
अर्थात
ज्ञानमय, नित्य, शंकररूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूं, जिनके आश्रित होने से ही टेढ़ा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है ।।३।।
४.
सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कबीश्वरकपीश्वरौ ।।४।।
अर्थात
श्री सीतारामजी के गुण समूह रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले, विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न कवीश्वर श्री वाल्मीकि जी और कपीश्र्वर श्री हनुमान जी की मैं वन्दना करता हूं ।।४।।
५.
उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम् ।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम् ।।५।।
अर्थात
उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूं ।।५।।
६.
यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः ।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम् ।।६।।
अर्थात
जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रमकी भांति यह सारा दृश्य-जगत् सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहाने वाले भगवान् हरि की मैं वन्दना करता हूं ।।६।।
७.
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि ।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा-भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ।।७।।
अर्थात
अनेक पुराण , वेद और [तन्त्र] शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्त:करण के सुख के लिए अत्यंत मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है ।।७।।
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